जाके पूर्बज जनम भए जाहि देस के मूल |
जनमत सो तो होइआ सोइ साख के फूल || १ ||
भावार्थ : - "कोई व्यक्ति किसी राष्ट्र का मूल नागरिक है यदि उसके पूर्वजों की जन्म व् कर्म भूमि उक्त राष्ट्र की भूमि रही हो तथा उसका जन्म ऐसे पूर्वजों द्वारा उत्पन्न माता-पिता से हुवा हो |"
स्पष्टीकरण : - यहाँ पूर्वज का आशय व्यक्ति के पूर्व की ज्ञातित पीढ़ियों में उत्पन्न व्यक्ति से है |
जौ उलाँघत उपजत निज देस धर्म मरजाद |
दूज हुँत मरजाद लिखे ताको संग विवाद || २ ||
भावार्थ : - अपने देश, अपनी कुल-जाति, अपने धर्म की मर्यादाओं के उल्लंघन का परिणाम जब दूसरों के जाति-कुल देश-धर्म की मर्यादा लिखने का यत्न करता है तब उसके साथ विवाद होता है | लोग पूछते हैं तुम्हारी जाति क्या है ? धर्म क्या है ? फिर अपवाद स्वरूप कोई कबीर कहता है कि ''जाति न पूछो साधू की....''
जाति धरम जब कुल रहे रहैं हंस संकास |
बिहूना होइ बगुल भए भाखन लागे माँस || ३ ||
भावार्थ :- जब जाति धर्म कुल की मर्यादाएं थीं तब हंस के समान रहे, जैसे ही मर्यादा भंग हुई बगुले हो गए और हिंसावादी होकर मांस-भक्षण करने लगे |
अजहुँ सीस चढ़ि बैसिआ सोई अजाति बाद |
निज मरजादा भूरि के औरन किएँ मरजाद || ४ ||
भावार्थ :- अपनी मर्यादाओं का उल्लंघन कर दूसरों को मर्यादित करने का यत्न करते हुवे जिस वाद का प्रादुर्भाव हुवा वह अजातिवाद विद्यमान समय में शीश पर चढ़ा बैठा है |
जाति बरन अरु कुल धर्म नाउ नेम मरजाद |
निर्बंधन जिन्ह चाहिए तासों करत बिबाद || ५ ||
भावार्थ :- जाति, वर्ण, कुल, धर्म नियम व् मर्यादाओं का दूसरा नाम है जिन्हें नियमों,मर्यादाओं, सीमाओं का विबंधन नहीं चाहिए उनका इनके साथ सदैव का विवाद रहा है और नियमों तथा सीमाओं की अबन्ध्यता अराष्ट्रवादिता की जननी है |
''राष्ट्रवादिता शब्दों से नहीं अपितु व्यवहार से प्रकट होती है.....''
जनमत सो तो होइआ सोइ साख के फूल || १ ||
भावार्थ : - "कोई व्यक्ति किसी राष्ट्र का मूल नागरिक है यदि उसके पूर्वजों की जन्म व् कर्म भूमि उक्त राष्ट्र की भूमि रही हो तथा उसका जन्म ऐसे पूर्वजों द्वारा उत्पन्न माता-पिता से हुवा हो |"
स्पष्टीकरण : - यहाँ पूर्वज का आशय व्यक्ति के पूर्व की ज्ञातित पीढ़ियों में उत्पन्न व्यक्ति से है |
जौ उलाँघत उपजत निज देस धर्म मरजाद |
दूज हुँत मरजाद लिखे ताको संग विवाद || २ ||
भावार्थ : - अपने देश, अपनी कुल-जाति, अपने धर्म की मर्यादाओं के उल्लंघन का परिणाम जब दूसरों के जाति-कुल देश-धर्म की मर्यादा लिखने का यत्न करता है तब उसके साथ विवाद होता है | लोग पूछते हैं तुम्हारी जाति क्या है ? धर्म क्या है ? फिर अपवाद स्वरूप कोई कबीर कहता है कि ''जाति न पूछो साधू की....''
जाति धरम जब कुल रहे रहैं हंस संकास |
बिहूना होइ बगुल भए भाखन लागे माँस || ३ ||
भावार्थ :- जब जाति धर्म कुल की मर्यादाएं थीं तब हंस के समान रहे, जैसे ही मर्यादा भंग हुई बगुले हो गए और हिंसावादी होकर मांस-भक्षण करने लगे |
अजहुँ सीस चढ़ि बैसिआ सोई अजाति बाद |
निज मरजादा भूरि के औरन किएँ मरजाद || ४ ||
भावार्थ :- अपनी मर्यादाओं का उल्लंघन कर दूसरों को मर्यादित करने का यत्न करते हुवे जिस वाद का प्रादुर्भाव हुवा वह अजातिवाद विद्यमान समय में शीश पर चढ़ा बैठा है |
जाति बरन अरु कुल धर्म नाउ नेम मरजाद |
निर्बंधन जिन्ह चाहिए तासों करत बिबाद || ५ ||
भावार्थ :- जाति, वर्ण, कुल, धर्म नियम व् मर्यादाओं का दूसरा नाम है जिन्हें नियमों,मर्यादाओं, सीमाओं का विबंधन नहीं चाहिए उनका इनके साथ सदैव का विवाद रहा है और नियमों तथा सीमाओं की अबन्ध्यता अराष्ट्रवादिता की जननी है |
''राष्ट्रवादिता शब्दों से नहीं अपितु व्यवहार से प्रकट होती है.....''
नागरिकी अधिकार एक मौलिक एक अधिकार |
येह नागर कर दीजिए येह मूलि कर धार || ६ ||
भावार्थ : - भारत के इतिहास से शिक्षा लेते हुवे वर्तमान संविधानों को दो प्रकार के अधिकारों से युक्त होना चाहिए, एक मौलिक अधिकार दूसरा नागरिक अधिकार | मौलिक अधिकार तत्संबंधित राष्ट्र के मूल निवासियों को एवं नागरिक अधिकार मूल निवासियों सहित प्रवासी पीढ़ियों को प्रदत्त हो |
शासन व् शासक चयन का अधिकार मौलिक अधिकार के अंतर्निहित हो.....
सासन के अधिकार जहँ गहे देस के मूरि |
जनमानस के सोइ सासन रहँ दासन ते दूरि || ७ ||
भावार्थ : -शासक व् शासन चयन जैसे मौलिक अधिकार जहाँ राष्ट्र के मूल नागरिक को ग्राह्य हों वह लोकतंत्र दासत्व के भय से मुक्त होता है |
सबहि देह मह जीउ है सबहि देह महँ प्रान |
सो महपापि अधमी जो ताहि हतें निरसंस || १२-ख ||
सबहि देह मह जीउ है सबहि देह महँ प्रान |
जिव हन्ता कहुँ दंड हो काहु नही ए बिधान || ८ ||
भावार्थ : - सभी देह श्वांस से युक्त है सभी देह प्राणमय हैं जीवन का अधिकार तो सभी को है | ईश्वर के शासन में जीव हत्या हेतु दंड का विधान है, मानव के शासन में इस अपराध हेतु दंड का विधान क्यों नहीं है |
बहुतक स्वाँग रचाई के पुनि भरे छद्म छ्ल भेस |
नेता कहिते भारतिअ छाड़ों भारत देस || ९ ||
भावार्थ : - नाना भांति के स्वांग रचाकर छल कपट का वेश धरे सत्ता को प्राप्त नेता कहते हैं ''भारतीय भारत छोडो''
देहि जति परिधान दियो पहिरे पाँउ खड़ाउ |
त्याजत तप रजत भयो सो तो रावन राउ || १० ||
भावार्थ : - देह में यतिवल्कल, चरणों में खड़ाऊ धारण किए सात्विकता यदि तामसी राजत्व को प्राप्त हो तो समझो वहां रावण राज है |
पथ पथ जाके राज में रचे कसाई गेह |
कहौ कहा तिन होइगा राम नाम ते नेह || ११ ||
भावार्थ : - जिनके राज में पंथ पंथ पर कसाईघर अवस्थित हो कहिए भला उन्हें भगवद से प्रेम होगा क्या |
हिंसे न केहि जिउ कतहुँ सोए अहिंसा नीति |
अधिनायक तंत्र जहँ तहँ होत सबहि बिपरीति || १२-क ||
भावार्थ :- सभी जीवधारियों में ईश्वर की सत्ता है किसी भी जीव की हिंसा न करने की नीति ही अहिंसा नीति है | किन्तु जहाँ अधिनायक तंत्र भाग्य विधाता हो वहां समस्त नीतियां मूलतः सिद्धांतों के विपरीत हो जाती हैं |
अधिनायक तंत्र = स्वेच्छा चारी शासन-प्रबंध, तानाशाही
दए अमि सुबरन नीपजे जुते खेह जौ बंस |भावार्थ : - सभी देह श्वांस से युक्त है सभी देह प्राणमय हैं जीवन का अधिकार तो सभी को है | ईश्वर के शासन में जीव हत्या हेतु दंड का विधान है, मानव के शासन में इस अपराध हेतु दंड का विधान क्यों नहीं है |
बहुतक स्वाँग रचाई के पुनि भरे छद्म छ्ल भेस |
नेता कहिते भारतिअ छाड़ों भारत देस || ९ ||
भावार्थ : - नाना भांति के स्वांग रचाकर छल कपट का वेश धरे सत्ता को प्राप्त नेता कहते हैं ''भारतीय भारत छोडो''
देहि जति परिधान दियो पहिरे पाँउ खड़ाउ |
त्याजत तप रजत भयो सो तो रावन राउ || १० ||
भावार्थ : - देह में यतिवल्कल, चरणों में खड़ाऊ धारण किए सात्विकता यदि तामसी राजत्व को प्राप्त हो तो समझो वहां रावण राज है |
पथ पथ जाके राज में रचे कसाई गेह |
कहौ कहा तिन होइगा राम नाम ते नेह || ११ ||
भावार्थ : - जिनके राज में पंथ पंथ पर कसाईघर अवस्थित हो कहिए भला उन्हें भगवद से प्रेम होगा क्या |
हिंसे न केहि जिउ कतहुँ सोए अहिंसा नीति |
अधिनायक तंत्र जहँ तहँ होत सबहि बिपरीति || १२-क ||
भावार्थ :- सभी जीवधारियों में ईश्वर की सत्ता है किसी भी जीव की हिंसा न करने की नीति ही अहिंसा नीति है | किन्तु जहाँ अधिनायक तंत्र भाग्य विधाता हो वहां समस्त नीतियां मूलतः सिद्धांतों के विपरीत हो जाती हैं |
अधिनायक तंत्र = स्वेच्छा चारी शासन-प्रबंध, तानाशाही
सो महपापि अधमी जो ताहि हतें निरसंस || १२-ख ||
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