Sunday, 27 May 2018

----- ॥ दोहा-द्वादश 4 ॥ -----

भगवन के ए सबहि पंथ भगवन के संसार | 
जहँ कहँ दुःख होइ तहँ लग करुना केर निहार || १ || 
भावार्थ : - यह संसार ईश्वर का है यहाँ हमारा कुछ भी नहीं है, सभी ग्रन्थ-पंथ हमें ईश्वर तक पहुँचाने के लिए हैं, उस तक पहुंचना तभी संभव है जब हमारी करुणा -दृष्टि की पहुँच न केवल मनुष्य अपितु प्रत्येक जीव के कष्ट तक हो | 

गगन बिसाल कि सिंधु हो धरति हो कि पाताल | 
आरत पुकारि सुनिहु जौ होई तरि पद ताल || २ || 
भावार्थ : - वह धरती में हो अथवा पाताल में हो, सिंधु में हो अथवा विशाल गगन में ही क्यों न हो | ईश्वर तक पहुंचना तभी संभव है जब हम चरण तल के नीचे स्थित जीव की भी आर्त पुकार को सुनें | 

रीति प्रीति सद चरित सों जोइ ग्यानद ग्रन्थ | 
होवनिहार चरन हेतु रचत सोइ सद पंथ || ३ || 
भावार्थ : - रीति प्रीति के सह शील व् चरित्र का गठन करते हुवे जो ग्रन्थ ज्ञान दायक होते हैं वह आने वाली पीढ़ी के संचालन हेतु सन्मार्ग का निर्माण करते हैं | 

बाती बरै सार बरै बरै दीप के अंग | 
रैन उजास सब जर मुए कीर्ति धरै पतंग || ४ || 
भावार्थ : -- बाती जली तेल जला दीपक के अंग प्रत्यंग जल गए, रात्रि को उज्ज्वलित कर सभी जल कर मृत्यु को प्राप्त हुवे किन्तु नाम पतंगे का हुवा |  


अर्थात : - 'श्रम कहीं और होता है, यश कहीं और |' 

बैद मरे रोगी मरे मरे न जी के रोग | 
मार मरी न मरनि मरी मर मर गए सब लोग || ५ || 
भावार्थ : - चिकित्सक मर गए रोगी मर गए किन्तु रोग नहीं मरा | काल नहीं मरा मृत्यु नहीं मरी, लोग मरते गए | 

धनहि सेती प्रीति कियो प्रीतम दियो दुराए | 
बीति रीति बिसराए जग अजहुँ ए रीति चलाए || ६ || 
भावार्थ : - धन से अथाह प्रीति की किन्तु प्रीति के आधार स्वरूप प्रीतम को दूर कर दिया | पुरानी उत्तम रीतियां का चलन नहीं रहा लोगों में अब वही 'चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए' वाली रीति प्रचलित है | 

गेह दुआरि त्याज के  करिआ एक के तीन | 
बैसी भीतर नागिनी काम बजावै बीन || ७ || 
भावार्थ : - घर द्वार को त्याग कर सदैव एक का तीन करने में लगे रहे | अंतर्मन में कुत्सित भावों रूपी दुष्टता का निवास हो गया काम बीन बजाकर उसे जब-तब नचाता रहा |  

अति अधुनातन की रीति बिन प्रीतम की प्रीति  | 
अंतर बोल न पाइये कस को गावै गीत || ८ || 
भावार्थ : -अत्याधुनिक काल में प्रीतम विहीन प्रीति का चलन है | न इसमें बोल प्राप्य  है न अंतरे, अब इस काल का कोई गीत गाए भी  तो कैसे गाए | 

सीतौ सीते दुःख मिले तापन तापै दुख्ख | 
सावन सूखे सुख मिले काल बँधे दुःख सुख्ख || ९ || 
भावार्थ : - शीत ऋतु में शीतलता दुःख देती है तापसऋतु  में ताप दुःख देता है |  वर्षा ऋतु में सूखे से सुख मिलता है निष्कर्ष यह निकलता है कि प्रकृति जनित अनुभूतियाँ काल के अधीन है किसी काल में कोई कारक सुखद होता है  वही कारक कालपरिवर्तन पर दुखद हो जाता है | 



धर्मिन बादी पाहिला आगिल भौतिक बाद | 
झरबेरी जमुकिया न त खावै सोइ स्वाद || १० || 
भावार्थ : - मनुष्य का प्रागकाल या पूर्वकाल प्रकृतिवादी था भवितव्य काल भौतिक वादी होता चला गया, काल में केवल मात्र इतना ही परिवर्तन हुवा है अन्यथा जामुन और बेरी का स्वाद वही है जो पाषाणकाल में था अर्थात मनुष्य अब भी वनचारी प्रवृतियों से युक्त है, उसका अंतर्जगत वर्तमान में भी असभ्यता को प्राप्त है भौतिक वादिता ने केवल उसके बाह्यजगत को व्यवस्थित किया है | 

गिरही का तो रागना विरही का बैराग | 
दोउ एकै ठाउँ रहे त सुबरन पे सोहाग || ११ ||  
भावार्थ : - गृहस्थ का अनुराग और वैरागी का वैराग्य सदैव उत्तम व् कल्याणकारी होता है | जब ये दोनों एक स्थान पर प्राप्त हों तब वह सोने पर सुहागा के सदृश्य अति उत्तम व् अतिकल्याणकारी होते हैं | 

काम भरोसे होइ के  भूमि बिया दे बोए | 
फूल फल तब मिलिया जब राम भरोसे होए || १२ || 
भावार्थ : - कर्म के भरोसे होकर प्रथमतः भूमि में बीज वपन कर दिया | कर्म सहित भगवान के भरोसे ही उसे जल प्राप्त होगा और हमें फल, फूल, ईंधन,छाया, औषधि की प्राप्ति होगी  |  










1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (29-05-2018) को "सहते लू की मार" (चर्चा अंक-2985) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete