Wednesday 23 May 2018

----- ॥ दोहा-पद 8॥ -----

खोल के पुरट-पट घन स्याम रंग दिखराए रे, 
हाय हरियारा सावन झुम के नियराए रे..,

रूप हरे धूप भरे इंद्रधनुष कहुँ चंग दै, 
गरज-गरज घोर घनी काली घटा छाए रे.., 

गौर गगन ग्वाल कर लेइ जल तरंग माल,
थिरकत जमुना के तट स्याम उर मिलाए रे..,


बिरुझाइ लट बेनि बट करधनी तट घट किये,
होरी पनघट पे गोरि नैन पंथ लाए रे..,

बैरन सहुँ बैर पड़े डास डँसे बिरहन घन, 
पिय के पेमदूत बन बूँद-बूँद बरखाए रे.., 

बाबुल मोरे मोहे नैहर लीजो बुलाए.....
  

कहुँ = को या कहीं 
चंग = खेंचना , लटकाना 
गौर गगन ग्वाल = उज्जवल आकाश रूपी ग्वाल, मित्र  
कर = हाथ 
उर = हृदय 

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (25-05-2018) को "अक्षर बड़े अनूप" (चर्चा अंक-2981) (चर्चा अंक 2731) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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