Sunday 20 May 2018

----- ॥ दोहा-पद 2॥ -----

जगत-जगत बिरती रे रतिया,  
बिरतै रतिया रे जगज उठे,
बिरताइ रतिया रे जगज उठे, 

अरुन उदयो अँजोरा सुधयो तज सैय्या सूरज उठे |                     हाँ तज सैय्या सूरज उठे ..
बिराज पुनि रथ उतरे छितिज पथ, परस चरन सिरु रज उठे ||    हाँss परस चरन सिरु रज उठे.. 
सरस सरोजर जोरे पानि सिस नाई पद पंकज उठे |                   सिस नाई पद पंकज उठे.. 
देय ताल मृदुल मंदिरु मंदिरु ढोल मजीरु मुरज उठे ||                  ढोल मजीरु मूरज उठे ..

सुर मालि पुर मधुर मनोहर संख नूपुर सहुँ बज उठे |                  हाँ संख नूपुर सहुँ बज उठे ..
सहस किरन बिनिन्दत गरुअत कलसी सिखर कर ध्वज उठे ||   कलसी सिखर कर ध्वज उठे ..
करत आरती सकल भारती भरि भेस भूषन सज उठे |                भरि भेस भूषन सज उठे.. 
बसहि बासि जिमि चहुँ कोत बासत कोटि कोटि मलयज उठे ||    हाँ कोटि कोटि मलयज उठे..  

अगज-जगज जगत भए सब जीव जगत के जाग |  
हरिअरी हरिदय निकेत जाग उठे अनुराग || 

अरुन उदयो = भोर हुई 
अँजोरा = उजाला
रज = कण, पराग कण 
पाणि = हाथ 
मजीरु मुरज = मंजीर मृदंग,
मलयज = चन्दन 
हरिअरी = धीरे धीरे 

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-05-2017) को "आम और लीची का उदगम" (चर्चा अंक-2978) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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