समय संगत चलिहौ रे समय जगत का बाहि |
समउ रहत सब साध है समय बिरत कछु नाहि || १ ||
भावार्थ : - समय जगत का वाहन है एतएव समय के साथ ही चलना चाहिए | समय रहते ही सभी कार्य सिद्ध होते हैं समय व्यतीत होने पर पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रहता |
काल गगन तरि दरसिया मेघाबरि कर झुंड |
गिरि बूँद सो होम भई तपन देव के कुंड || २ ||
भावार्थ : - बीते कल गगन तल पर घोर घटाओं का झुण्ड लक्षित हुवा,बुँदे भी गिरि, किन्तु वह सूर्य देव के यज्ञ कुंड में स्वाह हो गई, ठंडक थी सो जाती रही और वातावरण में ताप यथावत है |
जाने कहाँ कदम चले छूटी सच्ची राह |
रिश्ते नाते तोड़ती धन- दौलत की चाह || ३ ||
समंदर और किश्तियाँ साहिल और तूफ़ाँ |
मौजाँ मौजाँ माहिला बादे कश बादबाँ || ४ ||
बादे कश = हवा से खैंचा हुवा
बादबाँ = पोत का पाल
माहिला = मल्लाह
मेह बसावै नीलनभ नेह बसावै नैन |
देह बसावै आतमा गेह बसावै बैन || ५ ||
भावार्थ : - मेघों को नीला आकाश बसाता है | आकाश से रहित मेघ छीन-भिन्न रहते है, नयन स्नेह को बसाते हैं नयन से वियुक्त नेह अदृश्य रहता है | आत्मा को देह बसाती है अन्यथा वह भटकती रहती है वाणी घर को बसाती है वाणी की कटुता घर को उजाड़ देती है |
नाम बड़ाई सबहि किए तासु सधै सब काम |
नाम के संग होइ सो पहुंचे अपने धाम || ६ ||
भावार्थ : - नाम पहचान का प्रतीक है संसार में नाम की सभी प्रशंसा करते आए हैं | नाम जाति अथवा धर्म को संसूचित करता है जैसे : -आम नाम है और दशहरी उसकी जाति है | यदि किसी का नाम ज्ञात हो तो फिर उसे उसके धाम या मुक्ति धाम पहुंचाना सरल होता है एतएव नाम भी सोच समझ कर रखना चाहिए |
जहाँ अर्थ परमार्थ हुँत जहाँ दान कल्यान |
देवनहार भगत तहाँ लेनहार भगवान || ७ ||
भावार्थ : - जहाँ अर्थ स्वार्थ हेतु न होकर परमार्थ हेतु हो, दान मान हेतु न होकर कल्याण हेतु हो वहां भगवान भिक्षुक व् भक्त दाता हो जाता है |
लोक ब्यौहार कर हुँत नियताचारहि नीति |
प्रथानुकूल नेमधर्म कर परिपालन रीति || ८ ||
भावार्थ : - लोक-व्यवहार के हेतु नियत किए गए उत्तम आचार-विचार नीति है तथा इनका दृढ़ता पूर्वक परिपालन ही नैतिकता है और परम्परागत नियम-धर्म का परिपालन ही रीति है |
रहे जौ ठाट बाट ते कि रहे ठट्टा टाट |
कबहुँ न होत भली सुख साधन की बाट || ९ ||
भावार्थ : - संपन्न हेतु हो अथवा विपन्न हेतु, सुख सुविधाओं की बन्दर बाँट कभी कल्याणकारी नहीं होती |
कहँ त यहु जीबात्मना कहँ जग कर परिमान |
बहुरि सो मति मूरख जौ भरे भूरि अभिमान || १० ||
भावार्थ : - कहाँ यह अतिशय सुक्ष्म मानव शरीर और कहाँ संसार का परिमाण, वह बुद्धि फिर मूर्ख बुद्धि है जो अहंभाव से परिपूर्ण है |
कहँ मानस कर खेलना कहँ अगास को अंत |
एक सस परस समुझत सो आपनु आप महंत || ११ ||
भावार्थ : - कहाँ तो आकाश का अंत, और ज्ञान -विज्ञान के प्रसंग कहाँ मनुष्य की यह उछल-कूद | एकमात्र चन्द्रमा को स्पर्श करके ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार्य कर वह स्वयं को ही स्वयंभू समझने लगा |
बछुवन भूखन देख के गौ मा करे पुकार |
मानस मोरे अमृत के करो ना तिरस्कार || १२ ||
समउ रहत सब साध है समय बिरत कछु नाहि || १ ||
भावार्थ : - समय जगत का वाहन है एतएव समय के साथ ही चलना चाहिए | समय रहते ही सभी कार्य सिद्ध होते हैं समय व्यतीत होने पर पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं रहता |
काल गगन तरि दरसिया मेघाबरि कर झुंड |
गिरि बूँद सो होम भई तपन देव के कुंड || २ ||
भावार्थ : - बीते कल गगन तल पर घोर घटाओं का झुण्ड लक्षित हुवा,बुँदे भी गिरि, किन्तु वह सूर्य देव के यज्ञ कुंड में स्वाह हो गई, ठंडक थी सो जाती रही और वातावरण में ताप यथावत है |
जाने कहाँ कदम चले छूटी सच्ची राह |
रिश्ते नाते तोड़ती धन- दौलत की चाह || ३ ||
समंदर और किश्तियाँ साहिल और तूफ़ाँ |
मौजाँ मौजाँ माहिला बादे कश बादबाँ || ४ ||
बादे कश = हवा से खैंचा हुवा
बादबाँ = पोत का पाल
माहिला = मल्लाह
मेह बसावै नीलनभ नेह बसावै नैन |
देह बसावै आतमा गेह बसावै बैन || ५ ||
भावार्थ : - मेघों को नीला आकाश बसाता है | आकाश से रहित मेघ छीन-भिन्न रहते है, नयन स्नेह को बसाते हैं नयन से वियुक्त नेह अदृश्य रहता है | आत्मा को देह बसाती है अन्यथा वह भटकती रहती है वाणी घर को बसाती है वाणी की कटुता घर को उजाड़ देती है |
नाम बड़ाई सबहि किए तासु सधै सब काम |
नाम के संग होइ सो पहुंचे अपने धाम || ६ ||
भावार्थ : - नाम पहचान का प्रतीक है संसार में नाम की सभी प्रशंसा करते आए हैं | नाम जाति अथवा धर्म को संसूचित करता है जैसे : -आम नाम है और दशहरी उसकी जाति है | यदि किसी का नाम ज्ञात हो तो फिर उसे उसके धाम या मुक्ति धाम पहुंचाना सरल होता है एतएव नाम भी सोच समझ कर रखना चाहिए |
जहाँ अर्थ परमार्थ हुँत जहाँ दान कल्यान |
देवनहार भगत तहाँ लेनहार भगवान || ७ ||
भावार्थ : - जहाँ अर्थ स्वार्थ हेतु न होकर परमार्थ हेतु हो, दान मान हेतु न होकर कल्याण हेतु हो वहां भगवान भिक्षुक व् भक्त दाता हो जाता है |
लोक ब्यौहार कर हुँत नियताचारहि नीति |
प्रथानुकूल नेमधर्म कर परिपालन रीति || ८ ||
भावार्थ : - लोक-व्यवहार के हेतु नियत किए गए उत्तम आचार-विचार नीति है तथा इनका दृढ़ता पूर्वक परिपालन ही नैतिकता है और परम्परागत नियम-धर्म का परिपालन ही रीति है |
रहे जौ ठाट बाट ते कि रहे ठट्टा टाट |
कबहुँ न होत भली सुख साधन की बाट || ९ ||
भावार्थ : - संपन्न हेतु हो अथवा विपन्न हेतु, सुख सुविधाओं की बन्दर बाँट कभी कल्याणकारी नहीं होती |
कहँ त यहु जीबात्मना कहँ जग कर परिमान |
बहुरि सो मति मूरख जौ भरे भूरि अभिमान || १० ||
भावार्थ : - कहाँ यह अतिशय सुक्ष्म मानव शरीर और कहाँ संसार का परिमाण, वह बुद्धि फिर मूर्ख बुद्धि है जो अहंभाव से परिपूर्ण है |
कहँ मानस कर खेलना कहँ अगास को अंत |
एक सस परस समुझत सो आपनु आप महंत || ११ ||
भावार्थ : - कहाँ तो आकाश का अंत, और ज्ञान -विज्ञान के प्रसंग कहाँ मनुष्य की यह उछल-कूद | एकमात्र चन्द्रमा को स्पर्श करके ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार्य कर वह स्वयं को ही स्वयंभू समझने लगा |
बछुवन भूखन देख के गौ मा करे पुकार |
मानस मोरे अमृत के करो ना तिरस्कार || १२ ||
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