Monday, 21 May 2018

----- ॥ दोहा-पद 5॥ -----

जौ बाति कहउँ मैं साँचि
हेरि मुख भीत फनिस सी, घरि घरि एहि रसना नाचि,
बाँचि सबहि जग कर कहनि अरि हरि कथा न बाँचि..,
सुनु प्रसंगु एहि कल कीर्तन छाँड़ि मन रंजन बहु राँचि,
पढ़ि सब पढ़नि पढ़ि न हरिप्रिया कर आखरि पै पाँचि..,
जगवनि सबु रस कंठ करि बरु भगवनि भू दे कांचि,
जग बिरुझ भरिअ कुलाँचे जिमि हिरनी मारि कुलाँचि.....
बाहिर पुनि लीन्ही हरिदय मोरे अंतर करि जाँचि..,
साँचि असाँचे बिंग बैन बैनत भयउ नाराचि..,
कहत झूठे बैन जगत अरु जग ते में साँचि.....

अब तो नज़रे उस हर्फ़े-दुआ को पढ़े है,
 ले जाए कोई ये पैग़ाम बराए-दर.....

2 comments:

  1. सुप्रभात । सादर नमस्कार। क्षेत्रपाल

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  2. उत्कट इच्छा है कि एसी सुन्दर रचनाए लगातार पढने को मिलै। सादर

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